बिहार चुनाव में अब लड़ाई स्पष्ट होती जा रही है। चुनाव की तारीखों का एलान हो गया है। लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अलग से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद मामला भी साफ हो गया है। भाजपा अपने मुख्य सहयोगी नीतीश कुमार को बैक सीट पर कर खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावेदारी करना चाहती है। वहीं नीतीश भी उद्धव ठाकरे बनकर भाजपा को झटका देने में सक्षम हैं।
1. भाजपा के प्रदर्शन में सुधार की उम्मीद– साल 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला महागठबंधन से देखने को मिला। जिसमें आराजेडी और जेडीयू जैसे दो सबसे बड़ी पार्टियों ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा। लेकिन फिर भी भाजपा के वोट प्रतिशत में 7.94 फीसदी की उछाल देखी गई। वहीं, इस बार चुनाव में भाजपा के और बेहतर प्रदर्शन करने के आसार हैं। VDP एसोसिएट सर्वे के अनुसार भाजपा, जेडीयू से आगे है। भाजपा की करीब 67-80 सीटें आ सकती हैं वहीं जेडीयू की केवल 34-44 सीटें आने की संभावना है। यानी भाजपा को जेडीयू से 1.5 से दो गुना सीटें आने की संभावना है। ऐसे में नीतीश का मुख्यमंत्री पद के लिए दवा क्या वाजिब साबित होगा ?
2. एलजेपी के अलग लड़ने से नीतीश के सामने चुनौती- एलजेपी के नेता चिराग पासवान ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। साथ ही साथ भाजपा के प्रत्याशियों को समर्थन की भी बात कही है। चिराग ने इस बात की घोषणा की है कि वे जेडीयू के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। पिछले चुनाव में एलजेपी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा था। पार्टी को राज्य स्तर पर 4.8 फीसदी वोट हासिल हुए थे। अब अगर एलजेपी अपनी पूरी ताकत से जेडीयू के खिलाफ़ चुनाव लड़ती है, तो नीतीश को नुकसान पहुंचना तय है।
चिराग पासवान के अकेले एक चुनाव लड़ने के बाद नारा भी उछलाया गया – नीतीश तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं। यह नारा वैसा है, जिसमें अगर सीएम का नाम बदल दिया जाए, तो पहले राजस्थान में भी चर्चा में रह चुका है। लगातार चुनावों में ये देखने को मिला है कि जनता ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग वोट किया है। जिस हिसाब से माहौल बनाया जा रहा है, वह नीतीश के लिए घातक साबित हो सकता है।
3. नीतीश लोकप्रियता सिर्फ 30 फीसदी– नीतीश कुमार की लोकप्रियता में पिछले कुछ समय में काफी गिरावट देखी गई है। सी-वोटर्स के हालिया सर्वे के मुताबिक, 30 फीसदी लोगों ने बतौर सीएम नीतीश को अपनी पसंद बताया है। यह नीतीश के पिछले चुनाव से भी काफी कम है। साल 2015 में उनकी एवरेज लीडरशिप रेटिंग 40-45 फीसदी थी। ख़ास बात है कि कई ऐसे सीएम भी रहें, जिनकी लोकप्रियता 40 फीसदी रही, लेकिन चुनाव हार गए। चौथी बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनने की राह आसान नहीं होती। शीला दीक्षित, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, तरुण गोगोई, बिधान चंद्र रॉय सब लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने में असफल हुए थे ।
4. दोहरी एंटी इनकंबेंसी– नीतीश कुमार के सामने दोहरी एंटी इनकंबेंसी देखने को मिल रही है। साल 2005 में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। इसके बाद से अगर जीतन राम मांझी का कार्यकाल हटा दें, तो करीबपंद्रह साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री है। उनके खिलाफ नेचुरल एंटी इनकंबेंसी देखने को मिल रही है। जेडीयू के 122 सीटों पर लड़ने की ख़बर है। 2015 में जेडीयू ने 73 सीटों पर जीत हासिल की थी, इसमें लगभग 49 ऐसे विधायक चुनाव लड़ रहें हैं जिनका दूसरा या तीसरा टर्म है; इनको भी एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ सकता है, जिसका नुकसान फिर से जेडीयू में देखने को मिलेगा।
5. भाजपा कर सकती है सीएम सीट की मांग– कुल मिलाकर यहां दौड़ सीएम पद के दावेदारी की है। नीतीश कुमार को अगर नुकसान होता है, तो उसका फायदा भाजपा को मिल सकता है। अगर भाजपा अपने साथी से अधिक सीट हासिल करती है, तो सीएम पद ले जा सकती है। भाजपा और LJP अकेले 122 सीटें हासिल कर लें यह मुमकिन नहीं और साथ ही LJP भी 30-40 सीटें ले आए यह भी संभव नहीं दिख रहा हालाँकि भाजपा को सचेत रहना होगा क्यूंकि 2015 में भी JDU की RJD से ज्यादा सीटें थी लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश ही थे। जहाँ भाजपा JDU पर शिवसेना जैसा प्रहार करने का सोच रही है, वहीँ यह भी हो सकता है की ज्यादा दबाव में नीतीश भाजपा को अलविदा कर लालू की पार्टी के साथ हो लें।
Crowdwisdom360 के अनुसार, गूगल रुझानों पर इस समय एनडीए थोड़ा आगे है। गूगल के रुझान 70% सही होते है.
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